रौशनी होने लगी है मुझ में
कोई शय टूट रही है मुझ में
मेरे चेहरे से अयाँ कुछ भी नहीं
ये कमी है तो कमी है मुझ में
बात ये है कि बयाँ कैसे करूँ
एक औरत भी छुपी है मुझ में
अब किसी हाथ में पत्थर भी नहीं
और इक नेकी बची है मुझ में
भीगे लफ़्ज़ों की ज़रूरत क्या थी
ऐसी क्या आग लगी है मुझ में