सिलसिले ये कैसे हैं टूट कर नहीं मिलते
सिलसिले ये कैसे हैं टूट कर नहीं मिलते
जो बिछड़ गए लम्हे उम्र-भर नहीं मिलते
शोर करते रहते हैं जिस्म-ओ-जाँ के सन्नाटे
जब तवील राहों में हम-सफ़र नहीं मिलते
धूप की तमाज़त से जो बचाओ कर पाते
सूरजों के शहरों में वो शजर नहीं मिलते
चाहतों भरे कमरे दिल खुले खुला आँगन
अब तो ढूँडने पर भी ऐसे घर नहीं मिलते
सब ने हर ज़रूरत से कर रखा है समझौता
लोग मिलते रहते हैं दिल मगर नहीं मिलते
वक़्त ने तो बस्ती की शक्ल ही बदल दी है
जिन पे रौनक़ें थीं वो बाम-ओ-दर नहीं मिलते
अपने नफ़-ओ-नुक़्साँ का सब हिसाब रखते हैं
हम से मिलने वाले भी बे-ख़बर नहीं मिलते
इन दिनों 'ख़लिश' अक्सर मंज़रों के वो तेवर
अजनबी दयारों की ख़ाक पर नहीं मिलते
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