ज़िंदगी एहसान ही से मावरा थी मैं न था
ज़िंदगी एहसान ही से मावरा थी मैं न था
ताक़ पर रक्खी हुई मेरी दवा थी मैं न था
मेरी हस्ती आईना थी या शिकस्त-ए-आईना
बात इतनी सी न समझे मेरे साथी मैं न था
तू ही तो सब कुछ सही ना-चीज़ ये अब कुछ सही
वो तो मेरी इब्तिदा बे-इंतिहा थी मैं न था
देखता रहता हूँ मंज़र दीदनी ना-दीदनी
हाँ मगर हैरान चश्म-ए-मा-सिवा थी मैं न था
तू मुझे दुश्मन समझता है तो दुश्मन ही सही
तू भी वाक़िफ़ है कोई नादान साथी मैं न था
मेरे अंदर का दरिंदा खा रहा था पेच-ओ-ताब
और फिर शाइस्तगी ज़ंजीर-ए-पा थी मैं न था
ख़ैर अब तो च्यूँटी भी दौड़ती है काटने
झूलते थे जब कि दरवाज़े पे हाथी मैं न था
(632) Peoples Rate This