बिकती नहीं फ़क़ीर की झोली ही क्यूँ न हो
बिकती नहीं फ़क़ीर की झोली ही क्यूँ न हो
चाहे रईस-ए-शहर की बोली ही क्यूँ न हो
एहसान-ए-रंग ग़ैर उठाते नहीं कभी
अपने लहू से खेल वो होली ही क्यूँ न हो
सच तो ये है कि हाथ न आना कमाल है
दुनिया से खेल आँख-मिचोली ही क्यूँ न हो
है आसमाँ वसीअ ज़मीं तंग ही सही
तामीर कर कहीं कोई खोली ही क्यूँ न हू
हक़ पर जो है वही सर ओ शाना बुलंद है
है वर्ना बे-बिसात वो टोली ही क्यूँ न हो
दरिया की क्या बिसात कि मुझ को डुबो सके
कश्ती कहीं कहीं मिरी डोली ही क्यूँ न हो
तल्ख़ी में भी मज़ा है जो तू ख़ुश-मज़ाक़ है
पक जाए तो भली है निमोली ही क्यूँ न हो
कुछ तो हदीस 'ख़ैर' समझने के कर जतन
हर-चंद बे-मज़ा मिरी बोली ही क्यूँ न हो
(654) Peoples Rate This