मैं जंग जीत के जब्र-ओ-अना की हार गया
मैं जंग जीत के जब्र-ओ-अना की हार गया
अदू पे रहम का एहसास मुझ को मार गया
अमीर-ए-शहर के अफ़्व-ओ-करम को क्या कहिए
खुले वो लोग कि ख़ौफ़-ए-सलीब-ओ-दार गया
ग़ुरूर-ए-कसरत-ए-लश्कर न मेरे काम आया
मैं सो रहा था कि शब-ख़ूँ ग़नीम मार गया
मिरा नसीब कि बिखरी थी डाल डाल मिरी
कोई ख़िज़ाँ का बगूला मुझे सँवार गया
सदी की रात गुज़ारी उमीद के बल पर
बुझा चराग़-ए-सहर कर्ब-ए-इंतिज़ार गया
किसी ने चाप भी जाते हुए न उस की सुनी
जो शख़्स बरसों तिरे शहर में गुज़ार गया
शब-ए-फ़िराक़ के दरिया में कूद कर 'रासिख़'
तमाम क़र्ज़ वफ़ा के कोई उतार गया
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