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ख़िज़ाँ की बात न ज़िक्र-ए-बहार करते हैं - रशक खलीली कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ की बात न ज़िक्र-ए-बहार करते हैं

ख़िज़ाँ की बात न ज़िक्र-ए-बहार करते हैं

तो लोग कैसे ग़मों का शुमार करते हैं

ये अहल-ए-शहर जिसे ख़ाकसार करते हैं

बगूला कह के उसे बे-विक़ार करते हैं

अभी हमें किसी मंज़िल की जुस्तुजू ही नहीं

सफ़र बराए-सफ़र इख़्तियार करते हैं

ये किस के वस्ल की ख़ुशबू है रहगुज़ारों में

कि लोग शाम-ओ-सहर इंतिज़ार करते हैं

अगरचे बार-ए-समाअत हैं शब के सन्नाटे

कोई सुने तो उसे होशियार करते हैं

कुछ और शमएँ जलाना पड़ेंगी महफ़िल में

अभी अँधेरे उजालों पे वार करते हैं

हमें भी 'रश्क' दुआओं से मुद्दआ मिल जाए

यही दुआ है जो हम बार बार करते हैं

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In Hindi By Famous Poet Rashk Khaleeli. is written by Rashk Khaleeli. Complete Poem in Hindi by Rashk Khaleeli. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.