रात आख़िर हो सितम-पेशों पे ऐसा भी नहीं
रात आख़िर हो सितम-पेशों पे ऐसा भी नहीं
वक़्त रुक जाए कहीं आ के ये होता भी नहीं
अपने होने की सज़ा किस को मिला करती है
किस को ये ज़ख़्म दिखाऊँ जो हुवैदा भी नहीं
मुंतज़िर आईना-ख़ाने हैं न जाने किस के
शहर-ए-तिमसाल में अब तो कोई चेहरा भी नहीं
तुझ से मंसूब थे सब जौर सहे हम ने मगर
पास-ए-नामूस-ए-मोहब्बत था पुकारा भी नहीं
कोई हासिल नहीं इस कार-ए-जुनूँ का 'राशिद'
खेलता आग से हूँ और तमाशा भी नहीं
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