मिली है कैसे गुनाहों की ये सज़ा मुझ को
मिली है कैसे गुनाहों की ये सज़ा मुझ को
डराता रहता है अपना ही आईना मुझ को
मैं किस फ़साने का हिस्सा हूँ कह नहीं सकता
वजूद अपना भी लगता है वाक़िआ मुझ को
अब आसमाँ की चलो हद तलाश की जाए
बुला रहा है सितारों का क़ाफ़िला मुझ को
मैं काएनात पे अपनी निगाह डालता हूँ
तिरे ख़याल की मिलती है जब ज़िया मुझ को
सलाम करता हूँ रानाई-ए-हयात तुझे
अब और कोई तमाशा नहीं दिखा मुझ को
तिरी ख़मोशी में मुज़्मर है मेरा राज़-ए-सुख़न
कि बे-ज़बान न कर दे तिरी सदा मुझ को
वही अज़ीम है जो बाँटता हो दर्द-ए-वजूद
उसी के वस्ल का 'राशिद' है आसरा मुझ को
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