कभी यूँ भी करो शहर-ए-गुमाँ तक ले चलो मुझ को
कभी यूँ भी करो शहर-ए-गुमाँ तक ले चलो मुझ को
जहाँ तक रौशनी है तुम वहाँ तक ले चलो मुझ को
भटकता जा रहा हूँ राह-रौ मिलता नहीं कोई
ग़ुबार-ए-राह मेरे कारवाँ तक ले चलो मुझ को
ग़म-ए-आवारगी से मैं शिकस्ता होता जाता हूँ
परिंदो तुम ही अपने आशियाँ तक ले चलो मुझ को
ख़मोशी झेल ली मैं ने रिहाई की घड़ी आई
सुख़न के वास्ते लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक ले चलो मुझ को
किसी ताबीर की मंज़िल से या तो आश्ना कर दो
नहीं तो फिर उसी ख़्वाब-ए-गिराँ तक ले चलो मुझ को
'तराज़' अब तो तहफ़्फ़ुज़ की कोई सूरत नहीं मिलती
मिरे रहबर किसी जा-ए-अमाँ तक ले चलो मुझ को
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