शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं
शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं
एक अंदेशा-ए-शब-ख़ूँ है कि सब जागते हैं
शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
हर्फ़-ए-एजाज़ की तासीर से लब जागते हैं
राह-गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हैं कि मंज़िल का सुराग़
कुछ सितारे जो सर-ए-क़र्या-ए-शब जागते हैं
अक्स इन आँखों से वो महव हुए जो अब तक
ख़्वाब की मिस्ल पस-ए-चश्म-ए-तलब जागते हैं
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