और ज़रा कज मिरी कुलाह तो होती
और ज़रा कज मिरी कुलाह तो होती
ज़ात से बाहर कहीं पनाह तो होती
मुझ को अगर ज़िंदगी ने कुछ न दिया था
मेरे शब-ओ-रोज़ की गवाह तो होती
खो गई मंज़िल तो ख़ैर गर्द-ए-सफ़र में
जिस पे मैं चलता रहा वो राह तो होती
ख़ौफ़-ज़दा काश कोई मुझ को भी रखता
मेरे लिए भी कहीं पनाह तो होती
लम्हा-ए-मौजूद दस्तरस में न होता
लम्हा-ए-मौजूद पर निगाह तो होती
और मुझे ख़ल्क़ से उमीद ही क्या थी
मेरी नहीं तेरी ख़ैर-ख़्वाह तो होती
अपने चराग़ों की ताब देखते हम भी
रात तिरे हिज्र की सियाह तो होती
उस ने मुझे कर दिया ख़राब तो क्या है
यूँ भी मिरी ज़िंदगी तबाह तो होती
शहर से निस्बत भी कुछ निकाल ही लेते
शहर के लोगों से रस्म-ओ-राह तो होती
ख़ाक पे सोना हमें क़ुबूल था 'राशिद'
ख़ाक पे कुछ रौनक़-ए-गियाह तो होती
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