एक मुंजमिद लम्हा
तमाम क़ज़िया मकान भर था
अजब मअरका
सफ़र से किस को मफ़र है लेकिन ये क्या कि बस रेग-ज़ार आएँ
सवाल गूँज के चुप हैं जवाब आए नहीं
ख़मोश झील में गिर्दाब देख लेते हैं
इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया
एक बीमार सुब्ह
तब्दीली
आख़िरी नज़्म
अजीब ख़्वाहिश
मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा