प्यारा सा ख़्वाब नींद को छू कर गुज़र गया
प्यारा सा ख़्वाब नींद को छू कर गुज़र गया
मायूसियों का ज़हर गले में उतर गया
आँखों को क्या छलकने से रोका ग़ज़ब हुआ
लगता है सारा जिस्म ही अश्कों से भर गया
देखे तह-ए-चराग़ घनी ज़ुल्मतों के दाग़
और मैं फ़ुज़ूँ-ए-कैफ़-ओ-मसर्रत से डर गया
तन्हाइयाँ ही शौक़ से फिर हम-सफ़र हुईं
जब नश्शा-ए-जुनून-ए-रिफ़ाक़त उतर गया
कूचे से भी जो अपने गुज़रता न था कभी
क्या सोच कर उठा था कि जाँ से गुज़र गया
मामूली है कि सुब्ह जलाता हूँ ख़ुद को मैं
होता ये है कि रोज़ सर-ए-शाम मर गया
अब जिस को जो समझना हो समझा करे तो क्या
'राशिद' तिरा सुकूत अजब काम कर गया
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