तुम अपनी आँखों को बंद कर लो
तुम्हारी आँखें
जो मेरी आँखों में बस गई हैं
वो सुब्ह से शाम तक
मिरे साथ घूमती हैं
वो रात भर
मेरी नींद से चूर
बंद आँखों में जागती हैं
मैं सुब्ह आईना देखता हूँ
तो मेरी आँखों से झाँकती हैं
मुझे हर इक बात पर
कुछ इस तरह टोकती हैं
कि जैसे मैं एक
तिफ़्ल-ए-नादाँ हूँ
जानता ही नहीं
ज़माने के तौर क्या हैं
तुम अपनी आँखों को बंद कर लो
कि अब मुझे
ज़िंदगी के कुछ फ़ैसले मिरी जाँ
ख़ुद अपनी मर्ज़ी से करने होंगे
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