इंकिशाफ़
सर-ए-बज़्म कल मुझे देख कर
वो इसी ख़याल से डर गई
कि मैं उस की ओर हवाओं में
कहीं अपना बोसा उड़ा न दूँ
वो सिमट के और सँवर गई
कुछ अजीब ख़ौफ़ सा दिल में था
मुझे देख कर वो पलट गई
न तो भूल है न तो याद है
ये सुपुर्दगी का तज़ाद है
वो खड़े खड़े जैसे सो गई
वो तसव्वुरात में खो गई
वो तसव्वुरात भी ख़ूब थे
मैं दरख़्त बन के खड़ा रहा
तो वो बेल बन के लिपट गई
मैं तरस रहा था सुगंध को
तो वो शाख़-ए-गुल सी लचक गई
मिरा झूट-मूट का नश्शा था
मुझे देख कर वो बहक गई
बस इसी का उस को मलाल था
कि वो ख़्वाब था न ख़याल था
फिर अचानक आ के क़रीब ही
किया जब किसी ने सवाल तो
वो जो सोच थी वो बिखर गई
मैं समझ रहा था कि ख़ुश है वो
मगर उस को देख के यूँ लगा
कि ये सोचना मिरी भूल थी
मुझे देख कर वो मलूल थी
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