बेबसी
ये जीना क्या ये मरना क्या कुछ भी तो हमारे बस में नहीं
इक जाल बिछा है ख़्वाहिश का और दिल है कि फैला जाता है
हम बचने की जितनी कोशिश करते हैं फँसते जाते हैं
ये रेग-ए-रवान-ए-उम्र ही कुछ ऐसी है कि धँसते जाते हैं
जब रेत हमारे पैरों के नीचे से खिसकने लगती है
दुनिया की तमन्ना बुझती हुई आँखों में सिसकने लगती है
हर साँस उखड़ने से पहले सीने में दहकती जाती है
और धीरे धीरे चादर जिस्म-ओ-जाँ की मसक्ती जाती है
ये जीना क्या ये मरना क्या कुछ भी तो हमारे बस में नहीं
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