अन-चाही मौत
फ़ासला जब तुम्हारे मिरे दरमियाँ का
ज़रा बढ़ गया तो
तुम्हारी जुदाई के एहसास की
गर्म बूँदें
मिरी मुंतज़िर चश्म-ए-बे-ख़्वाब से
रात भर क़तरा क़तरा टपकती रहीं
सुब्ह तक करवटें
मेरे बिस्तर पे जलती रहीं
आग सी ख़ून के साथ
मेरे बदन में दहकती रही
याद की शम्अ
कमरे में शब-भर
सुलगती रही
और तुम्हारा नशा
मेरी नस नस में
तिल तिल उतरता रहा
मेरा सारा वजूद
एक अन-चाही मौत
एक इक लम्हा मरता रहा
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