आबला
वो रात कितनी अजीब थी
कट नहीं रही थी
कि वक़्त ही जैसे रुक गया था
ज़बान चुप थी
निगाहें इक दास्तान-ए-महरूमी-ए-तमन्ना
सुना रही थीं
बिसात-ए-आग़ोश बुझ गई थी
हमारा ही इंतिज़ार था
फ़र्श-ए-दिल-बरी को
मगर हम अपनी शराफ़त-ए-नफ़्स की
गिराँ-बारियों से मजबूर हो गए थे
ख़ुद अपनी फ़ितरत से
इस क़दर दूर हो गए थे
कि दिल की आवाज़ सुन न पाए
लहू की गर्दिश भी वक़्त के साथ
थम गई थी
हम उस के हक़ में वो आबला थे
जो फूटता है न सूखता है
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