ज़िंदगी जो कह न पाई रह गई
मौत वो सारी कहानी कह गई
रात भर उस का फ़साना लिख के हम
इतना रोए सब किताबत बह गई
हिचकियों में दब गया उस का सवाल
जैसे इक दस्तक अधूरी रह गई
क़ुर्ब के सदमे हूँ या दूरी का ग़म
जितना सहना था मोहब्बत सह गई
जब भी 'आज़र' दिल से निकली कोई बात
दिल की गहराई में तह-दर-तह गई