लाख चाहा मैं ने पर्दा सामने आया नहीं
लाख चाहा मैं ने पर्दा सामने आया नहीं
मेरी आँखों ने उसे ढूँडा मगर पाया नहीं
रहरव-ए-दश्त-ए-तमन्ना का सफ़र मुश्किल हुआ
धूप ता-हद्द-ए-नज़र है और कहीं साया नहीं
कुछ दिनों से बढ़ रहा है मेरे दिल का इज़्तिराब
इक भी लम्हे ने मुझे आराम पहुँचाया नहीं
नक़्श है मेरी सदा अब तक दर-ओ-दीवार पर
तेरे कानों से तो इक भी लफ़्ज़ टकराया नहीं
जितने असली फूल थे गुल-दान में मुरझा गए
काग़ज़ी फूलों में कोई फूल कुम्हलाया नहीं
अब्र गुज़रा है मिरी किश्त-ए-तमन्ना से 'रशीद'
साया तो उस ने किया है मेंह बरसाया नहीं
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