यूँ भी इक बज़्म-ए-सदा हम ने सजाई पहरों
यूँ भी इक बज़्म-ए-सदा हम ने सजाई पहरों
कान बजते रहे आवाज़ न आई पहरों
इक तिरा नाम था उभरा जो फ़सील-ए-लब पर
वर्ना सकते में रही सारी ख़ुदाई पहरों
लम्हा-भर के लिए बरसी तिरी यादों की घटा
हम ने भीगी हुई चिलमन न उठाई पहरों
वो तो फिर ग़ैर था ग़ैरों से शिकायत क्या हो
नब्ज़ अपनी भी मिरे हाथ न आई पहरों
आँख झपकी तो रवाँ थी वो हवा के रुख़ पर
हम ने जो रेत की दीवार बनाई पहरों
पर समेटे हुए यूँ चुपके से लम्हा गुज़रा
शब की दहलीज़ पे दी हम ने दुहाई पहरों
लौट कर आए न भटके हुए राही दिल में
आग इस दश्त में हम ने तो जलाई पहरों
फिर भी ले दे के वही रोग पुराना निकला
हम ने मोड़ी है ख़यालों की कलाई पहरों
वो हयूले थे कि साए थे सर-ए-रक़्स 'रशीद'
जिस्म की एक भी झंकार न आई पहरों
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