पानी की तरह रेत के सीने में उतर जा
पानी की तरह रेत के सीने में उतर जा
या फिर से धुआँ बन के ख़लाओं में बिखर जा
लहरा किसी छितनार पे ओ मीत हवा के
सूखे हुए पत्तों से दबे पाँव गुज़र जा
चढ़ती हुई इस धूप में साया तो ढलेगा
एहसान कोई रेत की दीवार पे धर जा
बुझती हुई इक शब का तमाशाई हूँ मैं भी
ऐ सुब्ह के तारे मिरी पलकों पे ठहर जा
लहराएगा आकाश पे सदियों तिरा पैकर
इक बार मिरी रूह के साँचे में उतर जा
इस बन में रहा करती है परछाईं सदा की
ऐ रात के राही तू ज़रा तेज़ गुज़र जा
उस पार चला है तो 'रशीद' अपना असासा
बेहतर है किसी आँख की दहलीज़ पे धर जा
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