मिरी जबीं का मुक़द्दर कहीं रक़म भी तो हो
मिरी जबीं का मुक़द्दर कहीं रक़म भी तो हो
मैं किस को सामने रखूँ कोई सनम भी तो हो
किरन किरन तिरा पैकर कली कली चेहरा
ये लख़्त लख़्त बदन अब कहीं बहम भी तो हो
मिरे नसीब में आख़िर ख़ला-नवर्दी क्यूँ
मिरी ज़मीं है तो उस पर मिरा क़दम भी तो हो
हर एक शख़्स ने कतबा उठा रखा है यहाँ
किसी के हाथ में आख़िर कोई अलम भी तो हो
गुज़ार लम्हे सहीफ़ा ब-दस्त उतरेंगे
तिरे नसीब में फ़ैज़ान-ए-चश्म-ए-नम भी तो हो
बस अब तो छेड़ दे ऐ मुतरिबा ग़ज़ल कोई
तरब-कदे में वो शहज़ादी-ए-अलम भी तो हो
'रशीद' लब पे हँसी है तो आँख नम कर ले
नई ख़ुशी के मुक़ाबिल पुराना ग़म भी तो हो
(576) Peoples Rate This