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मिरी जबीं का मुक़द्दर कहीं रक़म भी तो हो - रशीद क़ैसरानी कविता - Darsaal

मिरी जबीं का मुक़द्दर कहीं रक़म भी तो हो

मिरी जबीं का मुक़द्दर कहीं रक़म भी तो हो

मैं किस को सामने रखूँ कोई सनम भी तो हो

किरन किरन तिरा पैकर कली कली चेहरा

ये लख़्त लख़्त बदन अब कहीं बहम भी तो हो

मिरे नसीब में आख़िर ख़ला-नवर्दी क्यूँ

मिरी ज़मीं है तो उस पर मिरा क़दम भी तो हो

हर एक शख़्स ने कतबा उठा रखा है यहाँ

किसी के हाथ में आख़िर कोई अलम भी तो हो

गुज़ार लम्हे सहीफ़ा ब-दस्त उतरेंगे

तिरे नसीब में फ़ैज़ान-ए-चश्म-ए-नम भी तो हो

बस अब तो छेड़ दे ऐ मुतरिबा ग़ज़ल कोई

तरब-कदे में वो शहज़ादी-ए-अलम भी तो हो

'रशीद' लब पे हँसी है तो आँख नम कर ले

नई ख़ुशी के मुक़ाबिल पुराना ग़म भी तो हो

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In Hindi By Famous Poet Rasheed Qaisrani. is written by Rasheed Qaisrani. Complete Poem in Hindi by Rasheed Qaisrani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.