माना वो एक ख़्वाब था धोका नज़र का था
माना वो एक ख़्वाब था धोका नज़र का था
उस बेवफ़ा से रब्त मगर उम्र-भर का था
ख़ुश्बू की चंद मस्त लकीरें उभार कर
लौटा उधर हवा का वो झोंका जिधर का था
निकला वो बार बार घटाओं की ओट से
उस से मुआमला तो फ़क़त इक नज़र का था
तुम मुस्कुरा रहे थे तो शब साथ साथ थी
आँसू गिरे थे जिस पे वो दामन सहर का था
हम आज भी ख़ुद अपने ही साए में घिर गए
सर में हमारे आज भी सौदा सफ़र का था
सहरा के सर की माँग है अब तक वो इक लकीर
हासिल जिसे ग़ुरूर तिरी रहगुज़र का था
काली किरन ये गुंग सदाओं के दाएरे
पहुँचा कहाँ 'रशीद' इरादा किधर का था
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