गुम्बद-ए-ज़ात में अब कोई सदा दूँ तो चलूँ
गुम्बद-ए-ज़ात में अब कोई सदा दूँ तो चलूँ
अपने सोए हुए साथी को जगा लूँ तो चलूँ
फिर बिखर जाऊँगा मैं राह में ज़र्रों की तरह
कोई पैमान-ए-वफ़ा ख़ुद से मैं बाँधूँ तो चलूँ
जाने तू कौन है किस सम्त बुलाता है मुझे
तेरी आवाज़ की परछाईं को छू लूँ तो चलूँ
बुझ न जाएँ तिरे जल्वों के मुक़द्दस फ़ानूस
अपने भीगे हुए दामन को निचोड़ूँ तो चलूँ
कितना गम्भीर है कोहराम सुकूत-ए-शब का
कोई आवाज़ का पैकर कहीं देखूँ तो चलूँ
दोश-ए-तूफ़ाँ से कोई मौज बुलाती है मुझे
रेज़ा रेज़ा है बदन अब उसे चुन लूँ तो चलूँ
कितनी सदियों की मसाफ़त अभी बाक़ी है 'रशीद'
हाँपते जिस्म का ये ख़ोल उतारूँ तो चलूँ
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