सुर्ख़ हो जाता है मुँह मेरी नज़र के बोझ से
सुर्ख़ हो जाता है मुँह मेरी नज़र के बोझ से
क्या बनेगी ज़ेवर-ए-गुल-हा-ए-तर के बोझ से
यूँ हुए हैं ख़ाक बा'द-ए-दफ़्न तेरे ना-तवाँ
पिस गए हैं चादर-ए-गुल-हा-ए-तर के बोझ से
शर्म गो कम हो गई पर नाज़ुकी को क्या करें
अब झुके जाते हैं ख़ुद अपनी नज़र के के बोझ से
उफ़ री तेरी ना-तवानी लाग़री अल्लाह रे ज़ोफ़
एक ही करवट से हूँ दाग़-ए-जिगर के बोझ से
हिलते हैं अबरू तिरे बार-ए-गुल-ए-रुख़्सार से
जिस तरह शाख़ें लचकती हैं समर के बोझ से
दिल से आहें चल चुकी हैं हो गया मुमकिन विसाल
अब लबों तक आ नहीं सकतीं असर के बोझ से
यास-ओ-हसरत से ये बुलबुल की गिराँबारी हुई
लाख मन का है क़फ़स इक मुश्त-ए-पर के बोझ से
जामा-ए-असली बहुत कोहना हुआ है ऐ 'रशीद'
चाक हो जाए न अश्क-ए-चश्म-ए-तर के बोझ से
(479) Peoples Rate This