शराब-ए-नाब का क़तरा जो साग़र से निकल जाए
शराब-ए-नाब का क़तरा जो साग़र से निकल जाए
तड़प के दिल मिरा क़ाबू-ए-दिल-बर से निकल जाए
ख़ुशी में कह रहा हूँ आमद आमद है जो उस गुल की
कोई कह दे कि वीरानी मिरे घर से निकल जाए
सताते हैं रक़ीब आ आ के मैं गो छुप के बैठा हूँ
अजब ये ज़ुल्म है कोई किधर घर से निकल जाए
अगर सुन ले कि तेरे सख़्त-जाँ की बारी आ पहुँची
सिमट कर आब-ए-ख़ंजर चश्म-ए-जौहर से निकल जाए
निकालो रोज़ घर से डर नहीं लेकिन ये है धड़का
कि मेरा नाम ही इक दिन न दफ़्तर से निकल जाए
घटा के मैं ने अपना शौक़-ए-दिल लिक्खा है जानाँ को
कि उड़ने में न ख़त आगे कबूतर से निकल जाए
न जाने की करो जल्दी कि क़िस्सा ख़त्म होता है
ठहर जाओ ज़रा दम जिस्म-ए-लाग़र से निकल जाए
क़फ़स में दाम में मेरे फड़कने का ये बाइ'स है
हवा परवाज़ करने की मिरे पर से निकल जाए
इजाज़त अब्र को दर पर ठहरने की नहीं देते
बस इतना हुक्म है आ के फ़क़त बरसे निकल जाए
'रशीद'-ए-सोख़्ता-दिल सर पटकने पर है आमादा
कहो हर इक शरर से जल्द पत्थर से निकल जाए
(615) Peoples Rate This