राज़ उल्फ़त के अयाँ रात को सारे होते
राज़ उल्फ़त के अयाँ रात को सारे होते
हम कई बार उन्हें घबरा के पुकारे होते
शो'ला-ए-हुस्न को रोका है नक़ाब-ए-रुख़ ने
अभी मोती तिरे कानों के शरारे होते
जानते थे कि उतारोगे लहद में हम को
मैले कपड़े अभी तुम ने न उतारे होते
मेरे मरने के रहे मुंतज़िर एहसान किया
क्यूँ सही आप ने तकलीफ़ सुधारे होते
सामने मेरे रक़ीबों को दिखाए अबरू
आप ने उस से तो ख़ंजर मुझे मारे होते
साथ आहों के शब-ए-ग़म में जो दिल उड़ जाता
आबले औज ये पाते कि सितारे होते
दूर से भी न हुआ यार का दीदार नसीब
ख़ैर बातें न हुई थीं तो इशारे होते
इश्क़-बाज़ी न रही दिल जो गया वाह 'रशीद'
दम निकल जाता प हिम्मत तो न हारे होते
(527) Peoples Rate This