आँखों में ज़िंदगी के तमाशे उछाल कर
आँखों में ज़िंदगी के तमाशे उछाल कर
ऐ ग़ुर्बत-ए-निगाह न इतने सवाल कर
रहने दे आसमान को इक पर्दा-ए-ख़्याल
लेकिन ज़मीं को साया-ए-जन्नत बहाल कर
कोई तलब नहीं है तिरी बारगाह से
हम बे-ख़याल आए हैं इतना ख़याल कर
आराम-ए-जाँ हैं हम को यही सरसराहटें
पछताने वाले हम नहीं साँपों को पाल कर
आ रख दे हाथ सीना-ए-आतिश-मिज़ाज पर
कब तक रखेंगे तेरी अमानत सँभाल कर
वो बे-ज़बाँ ग़रीब न खा जाए कोई तीर
बे-चैन हो गया हूँ कबूतर उछाल कर
'एजाज़' अब के सुर्ख़ गुलाबों से काम ले
तेशे की आस छोड़ दे पत्थर को ला'ल कर
(591) Peoples Rate This