हाँ अभी कुछ देर पहले शेर की गूँजी थी धाड़
हाँ अभी कुछ देर पहले शेर की गूँजी थी धाड़
अब तो सन्नाटा है शायद हो चुकी हो चीर-फाड़
जिस्म से पहरा हटा ये खुरदुरी खालें उधेड़
ख़ून की झाड़ू से फिर इन हड्डियों की गर्द झाड़
ज़ेहन में जब कोई शीरीं का तसव्वुर आ गया
सर पे तेशों को उठाए दौड़ते आए पहाड़
वहशतें तारीकियाँ रुस्वाइयाँ बर्बादियाँ
हाए उम्मीदों की बस्ती और फिर इतनी उजाड़
जुस्तुजू की धूप में जो चलते चलते मर गए
उन की लाशों को उठा कर नीम के साए में गाड़
रात भर ठंडे थपेड़े दस्तकें देते रहे
सुब्ह तक जागे न थे सोए हुए तेरे किवाड़
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