बड़ी ही धूम से दावत हो फिर तो ज़ाहिद की
ये मय जो चार घड़ी को हलाल हो जाए
Allama Iqbal
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'रसा' को दिल में रखते हैं 'रसा' के जानने वाले
आईना ख़ुद-नुमाई उन को सिखा रहा है
आने को नज़र में मिरी सौ फ़ित्ना-गर आए
वो ख़ुश किसी के साथ हैं ना-ख़ुश किसी के साथ
दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई
दिल में किसी को रक्खो दिल में रहो किसी के
साक़ी जो दिए जाए ये कह कर कि पिए जा
आशिक़ को तेरे लाख कोई रहनुमा मिले
बअ'द-ए-फ़ना भी ख़ैर से तन्हा नहीं हैं हम
उन की ख़ल्वत में 'रसा' भी होगा
जी चाहा जिधर छोड़ दिया तीर अदा को