आईना ख़ुद-नुमाई उन को सिखा रहा है
आईना ख़ुद-नुमाई उन को सिखा रहा है
क्या क़हर कर रहा है क्या ज़ुल्म ढा रहा है
आँसू बहा रहा है वो सोज़-ए-दिल पे मेरे
ख़ुद ही लगा के ज़ालिम ख़ुद ही बुझा रहा है
उन को तो हम ने चाहा वो यूँ सता रहे हैं
ऐ चर्ख़-ए-कीना-पर्वर तो क्यूँ सता रहा है
आज़ुर्दा ग़ैर से हैं लेता हूँ मैं बलाएँ
रूठे हैं वो किसी से कोई मना रहा है
कूचे में उन बुतों ने रहने दिया न शायद
सुनते हैं अब 'रसा' भी काबे को जा रहा है
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