मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
लाज़िम नहीं हर शख़्स ही अच्छा मुझे समझे
है कोई यहाँ शहर में ऐसा कि जिसे मैं
अपना न कहूँ और वो अपना मुझे समझे
हर-चंद मिरे साथ रहे अहल-ए-बसीरत
कुछ अहल-ए-बसीरत थे कि तन्हा मुझे समझे
मैं आज सर-ए-आतिश-ए-नमरूद खड़ा हूँ
अब देखिए ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा क्या मुझे समझे
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