मुझ को काफ़ी है बस इक तेरा मुआफ़िक़ होना
सारी दुनिया भी मुख़ालिफ़ हो तो क्या होता है
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देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़
होता है साफ़ रू-ए-किताबी से ये अयाँ
अगर चिलमन के बाहर वो बुत-ए-काफ़िर-अदा निकले
मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से
बुतों में किस बला की है कशिश अल्लाह ही जाने
यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के
रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया
सौदा-ए-सज्दा शाम-ओ-सहर मेरे सर में है
जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले
दिखा कर ज़हर की शीशी कहा 'रंजूर' से उस ने