देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़
उफ़ एक मेरा सीना है उस पर हज़ार दाग़
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Gulzar
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(473) Peoples Rate This
यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के
जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले
दिखा कर ज़हर की शीशी कहा 'रंजूर' से उस ने
अगर चिलमन के बाहर वो बुत-ए-काफ़िर-अदा निकले
सौदा-ए-सज्दा शाम-ओ-सहर मेरे सर में है
मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से
रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया
बुतों में किस बला की है कशिश अल्लाह ही जाने
मुझ को काफ़ी है बस इक तेरा मुआफ़िक़ होना
होता है साफ़ रू-ए-किताबी से ये अयाँ