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यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के - रंजूर अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के

यक़ीनन है कोई माह-ए-मुनव्वर पीछे चिलमन के

कि उस की पुतलियों से आ रहा है नूर छन छन के

क़दम क्यूँ-कर न लूँ बुत-ख़ाने में इक इक बरहमन के

कि आया हूँ यहाँ मैं शौक़ में इक बुत के दर्शन के

न क्यूँ आईना वो देखा करें हर वक़्त बन बन के

ज़माना है ये ख़ुद-बीनी का दिन हैं उन के जौबन के

ये हैं सामान-ए-आराइश जुनूँ में अपने मस्कन के

उधर टुकड़े गरेबाँ के इधर पुर्ज़े हैं दामन के

हमारे दस्त-ए-वहशत कब हैं निचले बैठने वाले

उड़ा लेंगे न सारे तार जब तक जेब-ओ-दामन के

हमारी ख़ाना-वीरानी की धुन क्यूँ बाग़बाँ को है

हमारे पास क्या है चार तिनके हैं नशेमन के

हमारे यार की क़ीमत को क्या तुम ने नहीं देखा

खड़े हो सर्व शमशाद ओ सनोबर! तुम जो जियूँ तन के

ज़माने में कोई होगा कि बिगड़ी उस की बनती हो

हमारे खेल तो सारे बिगड़ जाते हैं बन बन के

कोई ख़ुर्शीद-सीमा आ रहा है फ़ातिहा पढ़ने

ज़रूरत शम्अ की अब क्या सिरहाने मेरे मदफ़न के

ख़बर ले अब ज़रा अपनी सफ़ाई क़ल्ब की ज़ाहिद

गिनेगा दाग़ कब तक तू मिरे आलूदा दामन के

ज़बाँ से कहने से हासिल कि तुझ से उन्स है मुझ को

समझता है मिरा दिल ख़ूब इशारे तैरे चितवन के

जो वा भी हो क़फ़स का दर तो हम उस से न हों बाहर

नहीं दिल में हमारे वलवले अब सैर-ए-गुलशन के

गरेबाँ चाक आँखें सुर्ख़ बरहम काकुल-ए-पेचाँ

ये क्या सूरत बनाई हाए तुम ने ग़म में दुश्मन के

मरा हूँ इक बुत-ए-ग़ारत-गर-ए-दीं की मोहब्बत में

कफ़न मेरा सिले तारों से ज़ुन्नार-ए-बरहमन के

ख़िज़ाँ और नग़्मे शादी के बहार आए तो गा लेना

ये दिन तो ऐ अनादिल हैं तुम्हारे शोर-ओ-शेवन के

जो हो बारान-ए-रहमत मज़रआ-ए-अग़्यार के हक़ में

वही बर्क़-ए-ग़ज़ब हो आह हक़ में मेरे ख़िर्मन के

दिल-ए-नादाँ की है क्या अस्ल अगर बुक़रात भी होता

तो आता वो भी दम में उस बुत-ए-अय्यार-ओ-पुर-फ़न के

हसीनान-ए-जहाँ के ढंग दुनिया से निराले हैं

कि होते हैं ये दुश्मन दोस्त के और दोस्त दुश्मन के

उन्हें हरगिज़ ये दिल अपना कि शीशे से भी नाज़ुक है

न देंगे हम कि उन में ढंग अभी तक हैं लड़कपन के

ग़म-ए-दुनिया-ओ-दीं से अब कहाँ दम भर की भी मोहलत

हमारी फ़ारिग-उल-बाली सुधारी साथ बचपन के

गया था रात वाइज़ मय-कदे में वाज़ कहने को

मगर निकला वो कोई शय छुपाए नीचे दामन के

न जानें उस में थी क्या मस्लहत सन्नाअ बे-चूँ की

दिल उन सीमीं-तनों के क्यूँ बनाए संग-ओ-आहन के

अगर ग़फ़लत का पर्दा दूर हो इंसाँ की आँखों से

नज़र आएँ मनाज़िर हर जगह वादी-ओ-ऐमन के

तग़ाफ़ुल कज-अदाई बेवफ़ाई आशिक़-ए-ज़ारी

बुतों को क्या नहीं आता ये हैं उस्ताद हर फ़न के

अगर मुझ से जुदा होने की तू ने ठान ही ली है

जुदाई डाल पहले दरमियाँ मेरे सर ओ तन के

अगर उश्शाक़ के मक़्सूम में था सदमा-ए-हिज्राँ

बनाए जाते उन के दिल भी या-रब संग-ओ-आहन के

वो रूठे हैं तो गो मुश्किल नहीं उन का मना लेना

मगर कब तक मनाऊँ रूठ जाते हैं वो मन मन के

तुम्हारी माँग अब क्या माँगती है नक़्द-ए-दिल मुझ से

वो है मुद्दत से क़ब्ज़े में तुम्हारी चश्म-ए-रहज़न के

अबस इस धुन में महर-ओ-माह खाते फिरते हैं चक्कर

कि हो उन को फ़रोग़ आगे तुम्हारे रू-ए-रौशन के

ग़रज़ शायद ये है 'रंजूर' क़ब्ल-अज़-मौत मर जाए

चले हो तुम जो यूँ बहर-अयादत आज बन-ठन के

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In Hindi By Famous Poet Ranjoor Azimabadi. is written by Ranjoor Azimabadi. Complete Poem in Hindi by Ranjoor Azimabadi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.