उस के कूचे में बहुत रहते हैं दीवाने पड़े
उस के कूचे में बहुत रहते हैं दीवाने पड़े
उन में देखा तो मियाँ-'रंगीं' न पहचाने पड़े
मैं सफ़र में हूँ और उस को ग़ैर बहकाते हैं वाँ
मुझ को अब काग़ज़ के घोड़े याँ से दौड़ने पड़े
साक़िया तेरी निगाह-ए-नाज़ के बाइस से देख
जाम ओ ख़ुम औंधे हैं और तलपट हैं पैमाने पड़े
दोस्तों के कहने सुनने से मुझे मजबूर हो
ज़ख़्म-ए-दिल जर्राह को ऐ वाए दिखलाने पड़े
अब ग़ज़ल इक और 'रंगीं' तू बदल कर लिख रदीफ़
क़ाफ़िया फिर ये मुकर्रर तुझ को कह जाने पड़े
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