तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
मैं देखता रहा हूँ तुझे ख़ाक-दान से
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दिल क़नाअत ज़रा सी करता तो
क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
हज़ार रस्ते तिरे हिज्र के इलाज के हैं
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका
तुझ से कहना था हाल-ए-दिल लेकिन
हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
ज़िंदगी देख तिरी ख़ास रिआयत होगी
कितने ख़्वाब समेटे कोई कितने दर्द कमाएगा
आधे घर में मैं होता हूँ आधे घर में तन्हाई