क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
वर्ना सैलाब में सामान कहाँ देखते हैं
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नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
दिलों में ख़ौफ़ के चूल्हे की आग ठंडी हो
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
जैसा चाहा वैसा मंज़र देखा है
एक दो ख़्वाब अगर देख लिए जाएँगे
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
बर्फ़ पिघली तो रास्ता निकला
अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
आओ आँखें मिला के देखते हैं