मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
वो जिस्म जब निकल गया रेशम के थान से
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तुझ को बताएँ किस तरह, बैठे हैं कैसे हाल में
ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
अगर ये चेहरा यूँही गर्द से अटा रहेगा
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
मैं जानता हूँ मोहब्बत में क्या नहीं करना
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
आधे घर में मैं होता हूँ आधे घर में तन्हाई
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
ऐसी प्यारी शाम में जी बहलाने को