मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
वो जिस को चाहे उसे देखना सिखाता है
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तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
दिल क़नाअत ज़रा सी करता तो
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
एक तू, एक आशिक़ी मेरी
नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
इक तस्वीर पिया की उभरी मंज़र से