ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
रख़्ने न डाल मेरे यार' ख़्वाब की देख-भाल में
Habib Jalib
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अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
दिलों में ख़ौफ़ के चूल्हे की आग ठंडी हो
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
ज़िंदगी देख तिरी ख़ास रिआयत होगी
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स