अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
आधे हम इस धरती पर हैं आधे उस सय्यारे पर
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अब ऐसे दश्त-मिज़ाजों से दूर घर लिया जाए
गले लगा के मुझे पूछ मसअला क्या है
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
जैसा चाहा वैसा मंज़र देखा है
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
तुझ से कहना था हाल-ए-दिल लेकिन
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
मैं हाव-हू पे कहानी को ख़त्म कर दूँगा
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स