आधे घर में मैं होता हूँ आधे घर में तन्हाई
कौन सी चीज़ कहाँ रख दी है कौन मुझे बतलाएगा
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अगर ये चेहरा यूँही गर्द से अटा रहेगा
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
गले लगा के मुझे पूछ मसअला क्या है
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
बना हुआ है हमारा कसी बहाने से
ज़िंदगी देख तिरी ख़ास रिआयत होगी
मैं जानता हूँ मोहब्बत में क्या नहीं करना
तुझ को बताएँ किस तरह, बैठे हैं कैसे हाल में
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन