तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले
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लफ़्ज़ बे-जाँ हैं मिरे रूह-ए-मआनी मुझे दे
जो तेरे ग़म में जले हैं वो फिर बुझे ही नहीं
ज़िंदगी कशमकश-ए-वक़्त में गुज़री अपनी
कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है
मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
लहकती लहरों में जाँ है किनारे ज़िंदा हैं
रूह में घोर अंधेरे को उतरने न दिया
दिल में तो बहुत कुछ है ज़बाँ तक नहीं आता
किसी ने दूर से देखा कोई क़रीब आया
आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें
यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
गुज़िश्ता अहल-ए-सफ़र को जहाँ सुकून मिला