अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं
सारा दिन सफ़र करना सारी रात ग़म करना
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किसी मरक़द का ही ज़ेवर हो जाएँ
गुज़िश्ता अहल-ए-सफ़र को जहाँ सुकून मिला
मैं अँधेरों का पुजारी हूँ मिरे पास न आ
रौशनी वाले तो दुनिया देखें
ज़िंदगी कशमकश-ए-वक़्त में गुज़री अपनी
हम ओस के क़तरे हैं कि बिखरे हुए मोती
लहकती लहरों में जाँ है किनारे ज़िंदा हैं
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
इस डर से इशारा न किया होंट न खोले
किसी ने दूर से देखा कोई क़रीब आया
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
सरमा था मगर फिर भी वो दिन कितने बड़े थे