सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
कुछ अपनी सम्त चल कर देखता हूँ
मुक़द्दर फूल हैं या ठोकरें फिर
किसी पत्थर में ढल कर देखता हूँ
मुझे देती है क्या क्या नाम दुनिया
तिरे कूचे में चल कर देखता हूँ
तपिश बेबाकियों की कम हो शायद
लहू सूरज पे मल कर देखता हूँ
भरोसा तो नहीं वअ'दे पे तेरे
मगर फिर भी बहल कर देखता हूँ
ये वो हैं या कि मेरा वाहिमा है
उन्हें फिर आँखें मल कर देखता हूँ
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