राज़-ए-हस्ती से आश्ना न हुआ
न हुआ आदमी ख़ुदा न हुआ
हर्फ़ रखता है जो निगाहों पर
रू-ब-रू इस के आइना न हुआ
तू तो शह-रग के पास था लेकिन
तय हमीं से ये फ़ासला न हुआ
रख दिया मुझ पे फ़र्ज़-ए-ख़िदमत-ए-ख़ल्क़
जब कोई मुझ सा दूसरा न हुआ
उस की दरिया-दिली ख़ुदा रक्खे
अर्ज़ हम से ही मुद्दआ' न हुआ