क़फ़स पे बर्क़ गिरे और चमन को आग लगे
क़फ़स पे बर्क़ गिरे और चमन को आग लगे
इलाही गर्दिश-ए-चर्ख़-ए-कुहन को आग लगे
सुलग रही हैं मिरे दिल की हसरतें ऐसे
भरी बहार में जैसे चमन को आग लगे
हर एक क़तरा-ए-शबनम बना है अँगारा
अजब नहीं जो गुल-ए-यासमन को आग लगे
न पोंछ अश्क मिरे देख अपने दामन से
ख़ुदा करे न तिरे पैरहन को आग लगे
क़सम है हम को तिरी चश्म-ए-मस्त की साक़ी
पिएँ शराब तो काम-ओ-दहन को आग लगे
नसीब हों न जहाँ ताएरों को दो तिनके
ख़ुदा करे कि अब ऐसे चमन को आग लगे
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