लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
ख़ूब से ख़ूब-तर है रू-ए-हयात
नए सिंघार कर रहा हूँ मैं
खुलते जाते हैं ज़ेहन के औराक़
तजरबों से गुज़र रहा हूँ मैं
तेरा होना न मान कर गोया
तुझ को तस्लीम कर रहा हूँ मैं
ख़ुद से ना-आश्ना सही लेकिन
तुझ से कब बे-ख़बर रहा हूँ मैं
महव ऐसा हूँ ख़ुद-परस्ती में
गोया तुझ से मुकर रहा हूँ मैं
(521) Peoples Rate This